पथ्य का पालन भी होना भी उसके साथ आवश्यक है। परहेज नहीं रखेंगे तो रोग बढ़ेगा
दमोह ।सुप्रसिद्ध सिद्ध क्षेत्र कुंडलपुर में युग श्रेष्ठ संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के परम प्रभावक शिष्य पूज्य आचार्य श्री समय सागर जी महाराज ने मंगल प्रवचन देते हुए कहा शरीर में कर्म के उदय से व्याधि आ जाती है और इसका निष्कासन औषधि उपचार आदि माध्यम से हो जाता है ।महत्वपूर्ण यह है बहुत जल्दी वह रोग से मुक्त हो सकता है रोग आया है किस द्वार से आया है इसका परीक्षण करना है यह तो बार-बार व्याधि होती है और औषधि दवाई लेते चले जाते हैं किंतु रोग का निष्कासन इसलिए नहीं होता जिस द्वार से रोग का प्रवेश हो रहा है वह द्वार बंद नहीं कर पा रहे ।दवाई बिल्कुल अच्छी क्वालिटी की दवाई है डॉक्टर भी अच्छा है दवाई रामवाण है । पथ्य का पालन भी होना भी उसके साथ आवश्यक है। परहेज नहीं रखेंगे तो रोग बढ़ेगा औषधि के द्वारा रोग बढ़ रहा है ऐसा नहीं है। आहार के द्वारा रोग आया है आहार के अलावा और बहुत सारे निमित्त हो सकते हैं। निमित्तों की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। उसी प्रकार मोक्ष मार्ग में भी कर्मों का आश्रव निरंतर होता रहता है।किंतु वह आश्रव अपने आप आश्रव नहीं होता अपने आप वंध नहीं होता फिर आश्रव निरोधा संवर सूत्र बनाने की क्या आवश्यकता है। किंतु ऐसा नहीं है आश्रव होता है वह बुद्धि पूर्वक भी होता है और अबुद्धि पूर्वक भी आश्रव होता है ।अबुद्धि पूर्वक जो आश्रव है उसको रोकने का प्रावधान अलग है उसको पुरुषार्थ के माध्यम से नहीं रोका जाता वह ऑटोमेटिक रुक जाता है कब रुकता है कहां रुकता है इसकी चर्चा बाद में करेंगे ।अभी बुद्धि पूर्वक जो आश्रव अथवा वंध हो रहा है उसको रोकना है बिना हेतु संभव नहीं है। बिना हेतु के वंध हो जाय आचार्य उमा स्वामी सूत्र दे रहे हैं मिथ्या तृष्णा –कषाय योगा वंध हेतवा -स्पष्ट हुआ बिना कारण के वंध होता नहीं ।पहले कारण की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है। तो शुभ और अशुभ का आश्रव होता है अथवा पुण्य और पाप का आश्रव होता है तो उसके लिए मन वचन काय की कुछ ऐसी चेष्टाएं हैं जिन चेष्टाओं के माध्यम से पाप का आश्रव होता है और ठीक इसके विपरीत कुछ आत्मगत परिणाम होते जिनके फल स्वरुप पुण्य का भी आश्रव होता है तो क्रम है गुरुदेव का कहना है कर्म का जो आश्रव होता है उसकी निर्जरा करनी है पाप कर्म की निर्जरा और पुण्य कर्म की निर्जरा इसमें क्रम है पाप पहले मिटता है पाप प्रथम मिटता पाप का वंध हुआ है तो पहले पाप का क्षय होगा फिर बाद में पुण्य का क्षय होगा। मोक्ष मार्ग में पुण्य बाधक नहीं है कुछ लोगों की धारणा हो सकती है। स्वाध्यायशील होते हुए अनभिज्ञ रहे हैं उन्हें ज्ञात कर लेना चाहिए पाप का क्षय और पुण्य का क्षय करना है यह दोनों समान है आगम ग्रन्थो में कुंदकुंद देव ने कहा है चाहे लोहे की बेड़ी हो चाहे स्वर्ण की बेड़ी हो बेड़ी तो बेड़ी है बंधन तो बंधन है बंधन किसको ईष्ट है ।संसार से मुक्त होना चाहता है संसारी प्राणी हम बंधन से मुक्त होना चाहते हैं महाराज।चाहे पाप हो चाहे पुण्य हो दोनों को एक तराजू में तोल लेते हैं और ठीक नहीं माना जाता पुण्य और पाप दोनों बेड़ी तो हैं जो संसार में प्रवेश कराता वह सुशील कैसे हो सकता यह कहा कुंदकुंद स्वामी ने।