– Kamran Asad
भारतीय लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जहां जनता के मतदान के अधिकार को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। हर कुछ वर्षों में लोकसभा और विभिन्न राज्य विधानसभाओं के चुनाव होते हैं, जिससे जनता सरकार के प्रति अपना विश्वास या असंतोष प्रकट करती है। लेकिन हाल ही के वर्षों में एक नए विचार ने राजनीतिक और सार्वजनिक चर्चाओं में जोर पकड़ लिया है: वन नेशन, वन इलेक्शन यानी एक राष्ट्र, एक चुनाव।
यह विचार अपने आप में क्रांतिकारी है, जिसमें पूरे देश में एक साथ लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव कराने की बात कही जा रही है। इसकी घोषणा या सुझाव कई बड़े नेताओं और नीति निर्माताओं ने की है, जिनका मानना है कि इससे चुनाव प्रक्रिया सरल, सस्ती और समयबद्ध हो जाएगी। लेकिन इस विचार के प्रभाव और इससे होने वाले संभावित लाभ और हानियों को समझना आवश्यक है।
भारत में चुनावी खर्च एक बहुत बड़ा मुद्दा है। हर साल केंद्र और राज्य स्तर पर चुनाव कराने के लिए बड़ी मात्रा में धन खर्च होता है, जिसमें सुरक्षा, प्रशासन, प्रचार, मतदाता पर्चियों का वितरण, और वोटिंग मशीनों की व्यवस्था शामिल है।
अगर “वन नेशन, वन इलेक्शन” को लागू किया जाता है, तो प्रत्येक चुनाव में होने वाले भारी खर्च को एक साथ निपटाया जा सकता है। चुनाव एक साथ होने से सरकार और राजनीतिक दलों दोनों के लिए धन और संसाधनों की बचत होगी।
लगातार होने वाले चुनाव प्रशासनिक कार्यों में रुकावट डालते हैं। चुनावी आचार संहिता लागू होते ही सरकारें बड़े नीतिगत फैसले नहीं ले सकतीं, जिससे विकास कार्य रुक जाते हैं। यदि एक साथ चुनाव होंगे, तो सरकारें पाँच वर्षों के लिए बिना किसी बाधा के प्रशासन चला सकती हैं। यह विकास योजनाओं को तेजी से लागू करने और उनके दीर्घकालिक प्रभाव को सुनिश्चित करने में मदद करेगा।
भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती इसमें है कि जनता को बार-बार अपने मताधिकार का उपयोग करने का अवसर मिलता है। लेकिन यदि चुनाव एक साथ होंगे, तो जनता को हर पांच साल में एक ही समय पर सभी चुनावों में मतदान करना होगा।
हालांकि यह अधिक व्यवस्थित लग सकता है, लेकिन यह भी एक तथ्य है कि बार-बार चुनाव होने से जनता का राजनीतिक जागरूकता बढ़ती है और उन्हें अपने प्रतिनिधियों के कामकाज की निगरानी का अवसर मिलता है। “वन नेशन, वन इलेक्शन” के साथ, जनता को कई स्तरों पर एक साथ निर्णय लेने की चुनौती का सामना करना पड़ सकता है।
भारत का संघीय ढांचा इस प्रकार डिजाइन किया गया है कि केंद्र और राज्य दोनों की सरकारें स्वतंत्र रूप से काम कर सकें। विभिन्न राज्यों में विभिन्न समय पर चुनाव होते हैं, जो राज्यों की विशिष्ट समस्याओं और मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
लेकिन “वन नेशन, वन इलेक्शन” लागू होने से राष्ट्रीय और राज्य चुनाव एक साथ होंगे, जिससे आशंका है कि राष्ट्रीय मुद्दे अधिक हावी हो सकते हैं और क्षेत्रीय मुद्दों को नजरअंदाज किया जा सकता है। यह क्षेत्रीय दलों के महत्व को भी कम कर सकता है, जो लोकतंत्र के संघीय ढांचे के लिए हानिकारक हो सकता है।
भारत का संविधान प्रत्येक राज्य और केंद्र के लिए अलग-अलग चुनावों का प्रावधान करता है। अगर “वन नेशन, वन इलेक्शन” को लागू करना है, तो संविधान में कई महत्वपूर्ण संशोधन करने होंगे।
इसके अलावा, अगर किसी राज्य की सरकार बीच में गिरती है, तो फिर चुनाव कब कराए जाएंगे, यह एक बड़ी चुनौती बन जाएगी। क्या उस राज्य को अगले पांच वर्षों तक बगैर चुनाव के ही संचालित किया जाएगा? ऐसे कई संवैधानिक और व्यावहारिक सवाल हैं, जिनका उत्तर ढूंढ़ना आवश्यक है।
“वन नेशन, वन इलेक्शन” के समर्थक इसे भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में एक नई दिशा मानते हैं। उनका दावा है कि इससे चुनाव प्रक्रिया सस्ती, सुचारू और प्रभावी हो जाएगी, और सरकारें अधिक स्थिर और जवाबदेह बनेंगी।
वहीं, इसके विरोधी इसे भारत के विविधतापूर्ण लोकतंत्र के लिए खतरा मानते हैं, जहां क्षेत्रीय और स्थानीय मुद्दों को उचित महत्व दिया जाना चाहिए।
इस विचार का क्रियान्वयन केवल तभी सफल हो सकता है, जब इसे समग्र रूप से सोच-समझकर लागू किया जाए, और सभी संवैधानिक, प्रशासनिक और सामाजिक चुनौतियों का उचित समाधान निकाला जाए।
भारत में लोकतंत्र का सफर हमेशा से कठिन और चुनौतीपूर्ण रहा है, लेकिन यही इसकी ताकत भी है। “वन नेशन, वन इलेक्शन” एक नई पहल हो सकती है, लेकिन इसे बिना समग्र विश्लेषण और चर्चा के लागू करना लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को कमजोर कर सकता है।