ईरान और इजराइल के बीच बढ़ते राजनैतिक तनाव का असर सिर्फ मध्य पूर्व तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका प्रभाव वैश्विक राजनीति और विशेष रूप से भारत जैसे देशों पर भी पड़ता है। भारत, जो ईरान और इजराइल दोनों के साथ मजबूत कूटनीतिक, आर्थिक और सैन्य संबंध रखता है, इन दो देशों के बीच की प्रतिस्पर्धा और संघर्ष के बीच एक संतुलन साधने की कोशिश करता है। इस लेख में हम ईरान-इजराइल तनाव के भारत पर पड़ने वाले प्रभावों की गहन समीक्षा करेंगे, जिसमें आर्थिक, सामरिक और कूटनीतिक पहलुओं पर चर्चा होगी।
ईरान और इजराइल के बीच तनाव कोई नई बात नहीं है। 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद ईरान ने इजराइल के साथ अपने सभी कूटनीतिक संबंध तोड़ दिए और उसके खिलाफ एक आक्रामक नीति अपनाई। इजराइल ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम को हमेशा अपने लिए एक बड़ा खतरा माना है, जबकि ईरान इजराइल को क्षेत्रीय स्थिरता और शांति के लिए सबसे बड़ा खतरा बताता रहा है।
इस तनाव के बीच, भारत की स्थिति दोनों देशों के साथ मैत्रीपूर्ण और व्यावसायिक संबंधों पर टिकी रही है। भारत की ऊर्जा आवश्यकताओं का एक बड़ा हिस्सा ईरान से आता है, जबकि इजराइल से उसे उच्च तकनीक और सैन्य उपकरणों का महत्वपूर्ण सहयोग प्राप्त होता है।
भारत और ईरान के बीच प्राचीनकाल से व्यापार और सांस्कृतिक संबंध रहे हैं। वर्तमान समय में, ईरान भारत के लिए एक महत्वपूर्ण ऊर्जा आपूर्तिकर्ता है। ईरान से भारत को सस्ते दरों पर कच्चा तेल मिलता है, जो भारत की ऊर्जा सुरक्षा के लिए अत्यंत आवश्यक है। इसके अलावा, चाबहार पोर्ट के माध्यम से भारत को अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक पहुंच बनाने में मदद मिलती है, जिससे उसकी क्षेत्रीय कूटनीति को बढ़ावा मिलता है।
हालांकि, ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंधों ने भारत के लिए इस संबंध को निभाना कठिन बना दिया है। इसके बावजूद, भारत ने ईरान के साथ अपने ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंधों को बनाए रखने की कोशिश की है, जबकि वह अमेरिकी प्रतिबंधों के दबाव में भी रहा है।
भारत और इजराइल के बीच कूटनीतिक संबंध 1992 में स्थापित हुए थे, और तब से ये संबंध लगातार मजबूत होते जा रहे हैं। इजराइल भारत को उन्नत सैन्य तकनीक, हथियार प्रणाली, और साइबर सुरक्षा में सहायता प्रदान करता है। इसके अलावा, दोनों देशों के बीच कृषि, जल संरक्षण और विज्ञान व प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में भी मजबूत सहयोग है।
इजराइल से भारत को ड्रोन, मिसाइल सिस्टम, और उन्नत निगरानी तकनीक मिलती है, जो भारतीय रक्षा रणनीति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। इन सबके बावजूद, भारत ने अपने मुस्लिम बहुल देशों के साथ रिश्तों को बिगड़ने नहीं दिया, जिसमें ईरान भी शामिल है।
ईरान, भारत के लिए कच्चे तेल का एक प्रमुख आपूर्तिकर्ता रहा है। हालांकि, अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण भारत को ईरान से तेल आयात में कमी करनी पड़ी है, जिसका असर भारतीय ऊर्जा सुरक्षा पर पड़ा है। ईरान-इजराइल के बीच बढ़ते तनाव के चलते यदि क्षेत्र में अस्थिरता बढ़ती है, तो यह भारत के लिए ऊर्जा संकट का कारण बन सकता है। इसके अलावा, होर्मुज जलडमरूमध्य, जो वैश्विक तेल व्यापार के लिए एक प्रमुख मार्ग है, पर ईरान की सामरिक स्थिति के कारण तनाव भारत की तेल आपूर्ति श्रृंखला को बाधित कर सकता है।
ईरान-इजराइल संघर्ष के बढ़ने से चाबहार पोर्ट पर भी असर पड़ सकता है। भारत ने इस पोर्ट में भारी निवेश किया है, जो उसे अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक पहुंच बनाने में मदद करता है। यदि ईरान और इजराइल के बीच संघर्ष और बढ़ता है, तो चाबहार पोर्ट के विकास और भारत के लिए इसकी सामरिक महत्ता को खतरा हो सकता है। इसके अलावा, अमेरिका के ईरान पर लगाए गए प्रतिबंधों के चलते भी चाबहार पर विकास कार्य धीमा पड़ा है।
भारत की विदेश नीति का मुख्य सिद्धांत “स्ट्रैटेजिक ऑटोनॉमी” है, जिसमें वह अपनी स्वायत्तता और स्वतंत्रता बनाए रखने पर जोर देता है। ईरान और इजराइल के बीच तनाव के चलते भारत को एक जटिल स्थिति का सामना करना पड़ता है। एक ओर उसे इजराइल से सैन्य तकनीक और कूटनीतिक समर्थन की आवश्यकता है, तो दूसरी ओर ईरान के साथ उसके ऐतिहासिक और सामरिक संबंध हैं।
भारत को दोनों देशों के बीच संतुलन साधने के लिए कूटनीतिक कुशलता की आवश्यकता होती है। इस तनावपूर्ण वातावरण में भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि वह किसी एक पक्ष की ओर न झुके, ताकि उसके दोनों देशों के साथ संबंध कायम रहें।
मध्य पूर्व के देशों में लाखों भारतीय प्रवासी श्रमिक कार्यरत हैं, और यह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक महत्वपूर्ण आय स्रोत है। यदि ईरान और इजराइल के बीच युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न होती है, तो यह पूरे मध्य पूर्व क्षेत्र को अस्थिर कर सकता है। इससे न केवल भारतीय श्रमिकों के रोजगार पर असर पड़ेगा, बल्कि उनके जीवन और सुरक्षा को भी खतरा हो सकता है।
ईरान-इजराइल संघर्ष का सीधा प्रभाव क्षेत्रीय स्थिरता पर पड़ता है। यदि यह तनाव बढ़ता है, तो भारत को अपनी पश्चिमी सीमाओं पर बढ़ती सुरक्षा चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। आतंकवादी गतिविधियों में बढ़ोतरी और क्षेत्रीय संघर्ष से उत्पन्न हुए शरणार्थियों की समस्या भी भारत के लिए एक चुनौती बन सकती है।
ईरान और इजराइल दोनों के संबंध रूस और चीन के साथ भी जुड़े हुए हैं। रूस और चीन, जो ईरान के करीबी सहयोगी हैं, उनके भारत के साथ भी अच्छे संबंध हैं। यदि भारत इजराइल की ओर अधिक झुकता है, तो यह रूस और चीन के साथ उसके संबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है। इसके विपरीत, अगर भारत ईरान की ओर झुकता है, तो यह अमेरिका और इजराइल के साथ उसके संबंधों को प्रभावित कर सकता है।
भारत को इस संघर्ष में अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिए एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाना होगा। कुछ महत्वपूर्ण कदम जो भारत उठा सकता है, वे निम्नलिखित हैं:
ईरान पर निर्भरता को कम करने के लिए भारत को अन्य ऊर्जा आपूर्तिकर्ताओं के साथ संबंध मजबूत करने होंगे। सऊदी अरब, इराक और अमेरिका से तेल और गैस आपूर्ति के स्रोतों को बढ़ाना एक रणनीतिक विकल्प हो सकता है।
भारत को अपने दोनों महत्वपूर्ण साझेदारों के साथ कूटनीतिक संतुलन बनाए रखना होगा। इसके लिए उसे वैश्विक और क्षेत्रीय मंचों पर सक्रिय भूमिका निभानी होगी, ताकि वह एक विश्वसनीय और तटस्थ मध्यस्थ के रूप में अपनी छवि बनाए रख सके।
इजराइल के साथ रक्षा सहयोग बढ़ाने के साथ-साथ भारत को स्वदेशी रक्षा उत्पादन और तकनीकी विकास पर भी ध्यान देना चाहिए, ताकि वह अपनी सैन्य क्षमताओं को आत्मनिर्भर बना सके और बाहरी देशों पर निर्भरता कम कर सके।
मध्य पूर्व में अपने आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव को बढ़ाने के लिए भारत को क्षेत्रीय देशों के साथ साझेदारी को और मजबूत करना होगा। चाबहार पोर्ट जैसे रणनीतिक परियोजनाओं में निवेश बढ़ाकर भारत अपनी उपस्थिति को और मजबूती दे सकता है।
भारत ईरान और इजराइल के बीच वार्ता और शांति स्थापना की प्रक्रिया में मध्यस्थता कर सकता है। भारत की गुट-निरपेक्ष छवि और दोनों देशों के साथ अच्छे संबंध उसे इस भूमिका में सक्षम बनाते हैं। यदि भारत सफलतापूर्वक इस भूमिका को निभाता है, तो यह उसकी वैश्विक स्थिति को और भी सशक्त बना सकता है।
ईरान और इजराइल के बीच बढ़ते तनाव का प्रभाव केवल मध्य पूर्व तक सीमित नहीं है, बल्कि भारत जैसे देशों पर भी इसका गहरा प्रभाव पड़ता है। भारत को अपनी ऊर्जा सुरक्षा, सामरिक हितों और कूटनीतिक संतुलन को बनाए रखने के लिए सतर्कता से कदम उठाने होंगे। इसके लिए उसे दोनों देशों के साथ अपने संबंधों को संतुलित रखना होगा, ताकि वह क्षेत्रीय अस्थिरता और वैश्विक राजनीति में उत्पन्न हो रही चुनौतियों का सामना कर सके।
भारत की कुशल विदेश नीति और संतुलित कूटनीति ही उसे इस कठिन स्थिति से उबरने में मदद कर सकती है, और उसे एक सशक्त वैश्विक शक्ति के रूप में उभार सकती है।
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